फीस के पैसे न होने के कारण छूटी पढ़ाई, जेब में 35 रु लेकर आये मुंबई, आज 25 करोड़ का है कारोबार

0
1621
Gaurav Sweets Veeral Patel
From Rs 35 To Rs 13 Crore, An Inspiring Story Of The Owner Of Gaurav Sweet Outlets. a sweet shop owner Veeral Patel success journey in Hindi.

Mumbai: मुंबई कभी किसी को निराश नहीं करती। अगर आप परिश्रम करते हैं और कुछ करने का जज़्बा है, तो आप अपनी कामयाबी पा ही लेते हैं, यह कहना है 55 साल के विरल पटेल का। ठाणे में निवास करने वाले विरल मशहूर ‘गौरव स्वीट्स’ के मालिक हैं। अगर आप ठाणे में रहते हैं, तो पक्का से इस नाम से वाकिफ होंगे। ‘गौरव स्वीट्स’ (Gaurav Sweets) के मुंबई (Mumbai) में 14 आउटलेट्स हैं और जल्द ही, दूसरे शहरों में भी वे अपने आउटलेट (Outlet) प्रारंभ करने वाले हैं।

गौरव स्वीट्स के उत्पाद जितने स्वादिष्ट हैं, उतनी ही रोचक है,इस ब्रांड के प्रारंभ होने की कहानी (Story)। इस ब्रांड को प्रारंभ हुए आज भले ही 15-16 वर्ष हुए हैं, लेकिन इसकी नींव के बीज तभी पड़ गए थे, जब वर्ष 1983 में गुजरात के एक किसान के बेटे विरल पटेल ने मुंबई आने का निर्णय लिया था।

हालांकि, उस वक़्त न विरल पटेल (Veeral Patel) ने और न उनके घरवालों ने कभी सोचा था कि एक दिन उनकी आमदनी करोड़ों में होगी। बल्कि उस वक़्त तो उनके माता-पिता की सिर्फ इतनी सी ख़ाहिश थी कि घर का बेटा बड़े शहर जाकर नौकरी करे, ताकि घर के स्थिति बेहतर हो सकें।

विरल पटेल ने अपने सफर (Veeral Patel’s Journey) के विषय में जानकारी दी । उन्होंने कहा, मैं कच्छ के एक छोटे से ग्राम से हूं। पिताजी खेती करते थे, पर उस वक़्त ग्राम में सिंचाई की कोई बेहतरीन सुविधा नहीं थी, तो खेती भी ठीक से नहीं हो पाती थी।

कहने के लिए बस घर चल रहा था। परिवार में आठ लोग थे। माँ-पिताजी और हम छह भाई-बहन। मैं सबसे बड़ा था, तो कच्ची उम्र से ही पिताजी का काम में सहयोग करने लगा था। सातवीं कक्षा तक ग्राम मे स्थित विद्यालय में ही शिक्षा प्राप्त की। इसके आगे , कक्षा दसवीं तक का स्कूल तालुका में था।

फीस के पैसे न होने के कारण छूट गयी पढ़ाई

विरल कहते हैं कि वह पढ़ाई में निपुण थे। अक्सर उनके शिक्षक कहते थे कि बारवी की पढ़ाई कर लें, फिर शिक्षक की नौकरी मिल जाएगी तो जिंदगी सुधर जायेगी। इसलिए उन्होंने तालुका के विद्यालय में दाखिला ले लिया। अब परेशानी यह थी कि किस स्थान पर निवास किया जाये।

उन्होंने कहा, तालुका में पटेल समाज का एक हॉस्टल था, जहां कम से कम पैसे में छात्र रहकर अध्ययन किया करते थे। पर उस हॉस्टल का महीने का 30 रुपए फीस देना भी पिताजी के लिए कठिन था। मैं दिन-रात अध्ययन में ही व्यस्त रहता था और खूब परिश्रम करता था, ताकि अच्छी नौकरी मिल जाये और घर में सब कुछ अच्छा हो। परंतु नसीब को कुछ और ही मंजूर था।

विरल का कहना हैं कि उन्होंने बहुत मुश्किल से दसवीं कक्षा उत्तीर्ण की, क्योंकि पिता के पास फीस की राशि नहीं थी। उन्होंने कहीं से उधार लेकर उनकी हॉस्टल फीस जमा की थी। इस कारण से दसवीं के बाद विरल को अध्ययन करना छोड़ना पड़ा। 15-16 वर्ष की आयु में उन्होंने मुंबई जाकर कमाने का फैसला किया।

उन्हें एक स्टेशनरी की दुकान पर लगवा दिया

उस वक़्त लोग कमाने के लिए मुंबई जाते थे। उनके ग्राम के आसपास से और उनके कई रिश्तेदार मुंबई में कार्य कर रहे थे। उन्होंने बताया, “पिताजी ने एक मर्तबा फिर कहीं से उधार लिया और मुझे 100 रुपए दिए। 100 रुपए में 65 रुपए का टिकट था। इसलिए जब मैं मुंबई आया, तो मेरी जेब में केवल 35 रुपए थे और दो जोड़ी पहनने के वस्त्र।” उनके पिता के एक परिचित व्यक्ती ने उन्हें एक स्टेशनरी की दुकान पर लगवा दिया। लेकिन इस दुकान पर उन्हें प्रारंभ में कोई वेतन नहीं मिला।

मालिक ने कहा कि पहले कार्य सिखाएंगे और फिर पगार का देखेंगे। परंतु रहना-खाना उन्होंने दिया। विरल ने कहा, उस वक़्त तो मेरे लिए इतना भी बहुत था। क्योंकि मुझे विश्वास था कि काम सीखने के पश्चात, मैं अवश्य ही कुछ अच्छा कर लूंगा। इसके पश्चात, मैं केवल एक लाख रुपए कमाऊंगा और अपने ग्राम वापिस लौट जाऊंगा। वहां जाकर ट्रैक्टर खरीदकर, मैं और पिताजी अच्छे से खेती करेंगे।

250 रुपए मिली पहली तनख्वाह

उन्होंने आगे बताया, मुझे भोजन और रहना तो मिल रहा था पर घर की बहुत याद आती थी। उस दौर में फ़ोन की उतनी वयवस्था नहीं थी कि आपकी जब इच्छा हुई तब परिवार वालों से बात हो गई। उन दिनों मैं बहुत रोता था, घर की याद आती थी।

कई बार तो दुकान में झाड़ू-पौंछा लगाते हुए रोता रहता था। वक़्त के साथ फिर लगने लगा कि अब मुंबई आ गया हूं, तो कुछ करना है। कम से कम इतना कमाना है कि घर पर चार बहनों को और छोटे भाई को अच्छी जीवन मिल सखे । इसलिए मैं पूरे मन से कार्य करता रहा और सीखता रहा कि स्टेशनरी का व्यापार कैसे चलता है।

विरल अपनी पहली तनख्वाह पर झूम उठे

तकरीबन 6 माह पश्चात , विरल को उनकी प्रथम तनख्वाह मिली। उन्हें पहली मर्तबा हाथ में 250 रुपए मिले तो उनकी ख़ुशी का ठिकाना नहीं था। उसमें से कुछ राशि उन्हें अपने लिए रखी और शेष सब घर पर भेज दिए।

विरल कहते हैं कि उन्होंने ढाई वर्ष तक उस दुकान में कार्य किया। इसके बाद, एक दूसरी दुकान में कार्य करने लगे। लेकिन दूसरों के यहां नौकरी करते हुए, उनका ध्यान सदेव इस बात पर रहा कि एक दिन वह अपना स्वम का व्यापार करेंगे। घर पर पैसों की तंगी थी, लेकिन नौकरी में केवल गुजारा हो सकता था। मैं चाहता था कि मेरा परिवार अच्छी जीवन जिए। जिस प्रकार किसी ने मुझे काम पर रखा है, वैसे मैं और लोगों को काम दूं। इसलिए व्यापार करना तो सुनिश्चित था।

वर्ष 1987 में विरल को उनके एक अन्य के रिश्तेदार ने ठाणे बुलाया। वह ठाणे में स्वम एक स्टेशनरी की दुकान प्रारंभ करने जा रहे थे और चाहते थे कि विरल इसे संभाल लें। क्योंकि, विरल मेहनती थे और उन्हें सारा कार्य पता था।

विरल इसे अपनी खुशनसीबी मानते हैं कि उन्हें यह अवसर प्राप्त हुआ। क्योंकि, इस दुकान को संभालते हुए उनकी काफी बचत हुई। इसी बचत से कुछ वर्षो के पश्चात उन्होंने अपना स्वम का व्यापार जमाना प्रारंभ किया। उन्होंने कहा कि कुछ धनराशि उनके पास थे और कुछ उन्होंने अपने रिश्तेदारों से उधार लिए, ताकि वह ठाणे में स्वम की स्टेशनरी की दुकान प्रारंभ कर सकें।

बिज़नेस के प्रसार पर दिया जोर

वर्ष 2000 तक उनके स्टेशनरी का कार्य अच्छा चलने लगा था। उनकी आमदनी भी ठीक हो रही थी और इस वजह से उन्होंने और दो-तीन जगह अपने स्टोर खोल दिए थे। परंतु विरल इतने से संतुष्ट नहीं थे और शायद कहीं न कहीं उन्हें पता था कि वह बहुत आगे बढ़ सकते हैं।

व्यावसाय में आपको सदेव अलग-अलग चीजें करनी चाहिए, क्योंकि बाजार का किसी को नहीं मालूम। इसलिए मैं सदेव विभिन्न विभिन्न क्षेत्रों के विषयों में जानकारी जुटाता रहता था कि किस क्षेत्र में क्या मुनाफा या जोखिम है। ऐसे में, एक बार मुझे एक परिचित ने सलाह दी कि खाने के व्यावसाय में कभी मंदी नहीं आती है। अगर कुछ हुआ, तो हो सकता है कि व्यापार मंदा पड़ जाये पर बंद नहीं होगा। क्योंकि खाना सबको चाहिए और मुंबई जैसी जगह पर खाने का व्यावसाय चलना ही चलना है।

विरल को यह सुझाव जंच गया, क्योंकि यह सच्चाई है। इसलिए वर्ष 2005 में उन्होंने ‘गौरव स्वीट्स’ की नींव रखी। गौरव स्वीट्स के लिए प्रथम दिन से ही उनका उद्देश्य रहा कि मुंबई में विभिन्न कोने से आये लोगों की आवश्यकताओं को पूरा करना है।

वह कहते हैं, मुंबई पचरंगी शहर है। यहां देश के हर हिस्से से व्यक्ति आकर बसे हुए हैं। इसके अलावा, कोई निम्न वर्गीय है, तो बहुत हाई-फाई। लेकिन अपने आउटलेट के माध्यम से हम सभी को सेवा प्रदान करना चाहते थे। इसलिए हमने केवल एक या दो मिठाई पर ध्यान देने की बजाय किस्मों पर ध्यान दिया।

फिर मिठाई के साथ-साथ उन्होंने नमकीन, सेव, चिप्स जैसे उत्पाद भी रखना प्रारंभ किया , ताकि ग्राहकों को कहीं और न जाना पड़े। इसके पश्चात उन्होंने अपने आउटलेट में लोगों के लिए खाने के विकल्प भी रखे जैसे पावभाजी, वडा पाव आदि। विरल कहते हैं, मैं किसान का पुत्र हूं। इसलिए न तो कभी परिश्रम करने से पीछे हटा और न ही जोखिम लेने से। इसी का परिणाम है कि आज हमारे 14 आउटलेट हैं और एक फैक्ट्री प्लांट है।

गांव में भी बनाया रोजगार का साधन

विरल (Gaurav Sweets Owner Veeral Patel) ने न सिर्फ मुंबई (Mumbai) में अपने लिए एक शानदार भवन का निर्माण करवाया है, बल्कि ग्राम में भी अपने आशियाने को संवारा है। उनके माता-पिता आज भी ग्राम में ही वास करते हैं। कभी-कभी ही वे मुंबई आते हैं, पर शहर उन्हें अधिक अछा नहीं लगता है। इसलिए विरल महीने-दो महीने में गांव पहुंच ही जाते हैं।

उन्होंने बताया कि कच्छ में अब उनकी तकरीबन 200 एकड़ भूमि है, जिस पर केवल जैविक खेती (Organic Farming) की जा रही है। उनके खेतों पर गौपालन भी होता है। इन सबकी देखभाल के लिए उन्होंने गांव के लोगों को ही कार्य पर रखा है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here